Wednesday, 9 April 2025

तकनीक की उड़ान, लेकिन सोच की जंजीरें?

 

राहुल सांकृत्यायन को पढ़ते हुए ये lines हाथ लगीं आज "स्त्रियों ने पहले - पहले जब घूँघट छोड़ा तो क्या कम हल्ला मचा था। उनपर क्या कम लांछन लगाए गए थे? लेकिन हमारी आधुनिक पंचकन्याओं ने दिखला दिया की साहस करने वाला सफल होता है और सफल होने वाले के सामने सभी सर झुकाते हैं। " 

यह उद्धरण राहुल सांकृत्यायन ने पुस्तक "भागो नहीं, दुनिया को बदलो" में लिखा है। यह पुस्तक 1940 के दशक में लिखी गई थी और इसमें उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, स्त्री-स्वतंत्रता, और साहसिकता पर अपने विचार प्रकट किए थे। मैं यह पुस्तक और इसका यह भाग आज 21वीं सदी के 2020 के दशक में पढ़ रही हूँ और बेहद हैरान हूँ कि घूँघट और पर्दा की कुप्रथा बीसवीं सदी में भी एक समस्या थी जिससे बहुत से लोगों ने लड़ाई लड़ी और अपने अपने स्तर पर ख़त्म करने की कोशिश की। और यह आज भी एक समस्या है। ठीक एक सदी बाद भी।   

जब मैं राहुल सांकृत्यायन की बात कर रही हूँ तो आपको बता दूँ कि वो साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित थे और साथ ही सम्मानित हुए थे पद्म भूषण से। उनके उत्कृष्ट कार्यों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। ख़ैर, वो आपको कुछ हद तक मालूम भी हो।  


हम बात करते हैं समाज की और उसकी नासूर सी कुप्रथाओं की।  

एक समस्या जो स्त्रियों पर पर्दे के रूप में थोपी गयी और आज भी थोपी जा रही है, एक सदी से समस्या हु- ब - हु कैसे हो सकती है? कैसे 1940  में कुछ स्त्रियों ने इसके विरूद्ध लड़ाई लड़ी और 2025  में भी कुछ स्त्रियाँ वही लड़ाई लड़ रही हैं। 

1940  के दौरान एक कंप्यूटर का size  एक कमरे के बराबर हुआ करता था आज हमारे पास स्मार्टफोन है जो हमारी जेबों में आ जाता है। 1940 तक space science के नाम पर हम चाँद तक भी नहीं पहुंचे थे और आज मंगल पर दुनिया बसाने की तैयारी है। इंटरनेट 1940 से करीब चालीस साल बाद 1980 के आसपास शुरू हुआ जो आज गाँव के कोने कोने तक फ़ैल चूका है, 2G से 5G तक का सफर किया हमने इस दरमियाँ। 1940 में किसी को टीबी हो जाता था तो इंसान मर जाता था आज कैंसर का भी उपचार है हमारे पास। इतनी तरक्की , एक सदी में क्या से क्या किया जा सकता है और हो सकता है लेकिन हमारे समाज ने क्या महिलाओं के प्रति रवैये में कोई तरक्की नहीं की। 1940 की लड़ाई 2030 तक कैसे चल सकती है।  क्या हम संस्कृति के नाम पर खुद को और बाकि महिलाओं को धोखा दे रहे हैं ? जब हमारा वक़्त के साथ बदलना मान्य नहीं है तो फिर हमने बाकि सभी क्षेत्रों में तरक्की क्यों की? क्यों हम झोंपड़ियों से निकल के apartments में आ गए? क्या झोंपड़ी हमारी संस्कृति नहीं? क्यों बन्दर से इंसान हो गए? क्या बन्दर बने रहना हमारी संस्कृति नहीं ? 

संस्कृति, सभ्यता और धर्म ये सबसे बड़े धोखे हैं जिन नामों पर प्रताड़नाएँ दी जा रही हैं और मैं निःशब्द हूँ कि ये सदियों से जारी हैं। महिलाओं को शिक्षा, काम और बराबरी के अधिकार मिलने के बावजूद, सामाजिक दायरों में अभी भी उन्हें घूँघट, पर्दा, और लिंगभेद जैसी रूढ़ियों का सामना करना पड़ रहा है और अगर मैं बताऊँ तो कुछ लोग internalized patriarchy की वजह से ये जानने में भी सक्षम नहीं हैं कि ये कितना गलत है। किसी रूढ़ि को नासूर बनाने में कितना बड़ा योगदान करते आये हैं हम सब।

अगर हम चाँद और मंगल तक पहुँच सकते हैं, लेकिन अपनी सोच विकसित नहीं कर सकते, तो हमें खुद से पूछना होगा—हम दर असल किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? ताज़्ज़ुब है कि तकनीकी उड़ान के समक्ष भी सोच की जंजीरें कितनों का दम घोंट रही हैं। क्या हम अपनी अगली पीढ़ियों को वही बेड़ियाँ सौंपेंगे, जो हमें विरासत में मिली थीं? हमें यह सोचना होगा और जरूर सोचना होगा कि हर मज़बूरी को परंपरा के नाम पर सदी - दर - सदी नहीं धोया जा सकता। और बदलाव की ज़िम्मेदारी हमारी ही है। 


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