भारत में विवाहित महिलाओं के चांदी की बिछिया पहनने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसे न सिर्फ विवाह का प्रतीक माना जाता है, बल्कि इसे महिलाओं के स्वास्थ्य, विशेष रूप से गर्भाशय और मासिक धर्म चक्र पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाला भी बताया जाता है। पर क्या यह सच में वैज्ञानिक तर्क पर आधारित है या सिर्फ अंधविश्वास का हिस्सा है?
पुरानी मान्यताएँ और आज का यथार्थ
ऐसा माना जाता है कि दूसरी उंगली के नसों का संबंध गर्भाशय से होता है, और बिछिया पहनने से उस पर दबाव बनता है, जिससे मासिक धर्म नियमित और गर्भाशय स्वस्थ रहता है। साथ ही, चाँदी को ऊर्जा का अच्छा संवाहक माना जाता है और यह शरीर में सकारात्मक ऊर्जा लाने का माध्यम समझा जाता है। लेकिन इसके साथ ये सवाल कायम रहता है कि अगर इससे वाकई कोई स्वास्थ लाभ है तो ये अविवाहित लड़कियों में क्यों प्रचलित नहीं हुआ?
कई क्षेत्रों में यह भी कहा जाता है कि बिछिया पहनने से पति की आयु लंबी होती है। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से निराधार और पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाती है। किसी आभूषण को पति की आयु से जोड़ना एक अंधविश्वास है जिसका विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। इक्कीसवी सदी में जहाँ हम हर तरफ से इतनी तरक्की कर रहे हैं, विज्ञान, तकनिकी, शिक्षा और क्या क्या फिर दूसरी तरफ इस तरह के अंधविश्वासों में ग्रसित रहना बिल्कुल शोभा नहीं देता। कुरीतियों और रूढ़िवादिता का खंडन समय समय पर बहुत ज़रूरी हो जाता है ताकि समाज तरक्की की दिशा में बढ़ता रहे।
क्या कहता है विज्ञान?
वर्तमान में ऐसा कोई वैज्ञानिक शोध उपलब्ध नहीं है जो यह साबित करे कि चांदी की बिछिया पहनने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। आयुर्वेद के पुराने ग्रंथों में भी इस परंपरा का उल्लेख केवल सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में मिलता है, न कि किसी चिकित्सीय उपचार के रूप में।
संस्कृति बनाम विज्ञान: एक गहरी सोच की ज़रूरत
संस्कृति हमें जोड़े रखती है, लेकिन यह सवाल करना भी उतना ही ज़रूरी है कि हम क्या और क्यों मानते हैं। हर परंपरा का अंधानुकरण करना न तो प्रगतिशील है और न ही तर्कसंगत। चांदी की बिछिया पहनने की परंपरा को सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में अपनाना एक बात है, लेकिन इसे स्वास्थ्य और ऊर्जा के नाम पर सही ठहराना गलत है।
सोचिए, सवाल कीजिए और आगे बढ़िए
बिछिया पहनना यदि आपकी पसंद है, तो यह आपकी संस्कृति और व्यक्तित्व का हिस्सा है। लेकिन इसे स्वास्थ्य लाभ या पति की लंबी उम्र जैसे मिथकों से जोड़कर महिमामंडित करना केवल अंधविश्वास को बढ़ावा देना है।
महिलाओं को इस मानसिकता से मुक्त होना होगा, जो उन्हें सिर्फ परंपराओं का पालन करने तक सीमित कर देती है। सही बदलाव वहीं से शुरू होता है, जब हम सवाल पूछते हैं और तर्क पर आधारित निर्णय लेते हैं। परंपराओं को आंख मूंदकर स्वीकारने के बजाय, उनका विश्लेषण कीजिए। क्योंकि जो परंपरा तर्कसंगत नहीं, वह केवल अतीत का बोझ है।
पुराने समय में जब पक्के सड़क और सख्त जमीन नहीं होती थी, तब पदचिन्हों का इस्तेमाल किया जाता था, और मुख्यतः जूते या खड़ाऊ या अन्य चीजों का इस्तेमाल केवल अमीर या शाही परिवार के लोग ही कर पाते थे।
ReplyDeleteउस समय यदि कोई महिला पैदल चल के गई है तो जमीन पर पड़े पदचिन्हों में बिछिया का निशान रह जाता था। जिससे यह पता चलता था कि औरत विवाहिता थी या नहीं। सदियों पहले जो सहूलियत थी आज वह परंपरा के नाम पर थोप दी गई है।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपदचिन्हों में विवाहिता है या नहीं की ज़रूरत को समझना चाहूंगी अनिमेष!
ReplyDeleteपुरुष प्रधान समाज स्त्रियों पर नजर क्यों रखना चाहेगा, यह सवाल स्वयं में ही अतिशयोक्ति है।
ReplyDelete